Monday, April 5, 2010

उम्मीद


हर शाम चली जाती हो कल का वादा करके
लेकिन तुम बिन कैसे रात गुजार पाएंगे

मोहब्बत का दीया हर रोज़ जला जाती हो
इस उजाले में हम कैसे सो पायेंगे

छुके बदन जो आग लगा गयी हो
रात भर अश्क बहा के क्या उसको बुझा पाएंगे

थक गया हूँ बेदर्द शब को समझाते समझाते
अब और अपने अश्को की शबनम नहीं बना पायेंगे

बैठा हुआ है "अंजान" इस इंतज़ार में
कल से शायद उनके आँचल में सो पायेंगे

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