Monday, April 5, 2010

उम्मीद


हर शाम चली जाती हो कल का वादा करके
लेकिन तुम बिन कैसे रात गुजार पाएंगे

मोहब्बत का दीया हर रोज़ जला जाती हो
इस उजाले में हम कैसे सो पायेंगे

छुके बदन जो आग लगा गयी हो
रात भर अश्क बहा के क्या उसको बुझा पाएंगे

थक गया हूँ बेदर्द शब को समझाते समझाते
अब और अपने अश्को की शबनम नहीं बना पायेंगे

बैठा हुआ है "अंजान" इस इंतज़ार में
कल से शायद उनके आँचल में सो पायेंगे

अस्तित्व


ऐसा क्या हो गया है इंसां को
की अपने ही सुख में डूब गया है

उसके इर्द गिर्द और भी है दुनिया
क्यों उसको भूल गया है

प्यार , मोहब्बत, रिश्ते ,नातो को
क्यों पैसे से तोल रहा है

अगर पैसे से ही सुख है
फिर हर मोड़ पे रास्ता क्यों भूल रहा है

भूल रहा है जब चिल्ला रहा होगा अपने दुख से
लोग पागल कह के आगे निकल जायेंगे

जल रहा होगा जब घर
लोग हाथ सेंक कर आगे बढ जायेंगे

जल गया जब तेरा पैसा
अब दुनिया को पहचान रहा है

राख बचेगी जब तन पर
अब अपना अस्तित्व दूंद रहा होगा