Saturday, March 27, 2010

दर्पण


दर्पण

दर्पण में खुद को कई बार देखा
लेकिन तेरी आँखों में
जितना खूबसूरत देखा
दर्पण में कहाँ पाया

दूंदती थी तुझ को मैं
सपनो की दुनिया में
और जब चहरे से नकाब हटाया
तुझको अपनी ही आँखों में पाया

यादों में खोई थी तेरी
की तुझ को अपने सामने ही पाया
तेरी साँसों ने जो आँचल उड़ाया
शर्म से मैंने आँखों को झुकाया

भुला के अपने सारे गम
कदमो को तेरी तरफ बढाया
बाहों में तेरी आकर
खुद को जन्नत के करीब पाया

दर्पण में खुद को कई बार देखा
लेकिन तेरी आँखों में
जितना खूबसूरत देखा
दर्पण में कहाँ पाया