दोड़ पड़ता हूँ दरख्तों को हिलते हुए देख के
शायद मेरा महबूब इनके करीब से गुजरा होगा
दरख्तों की हवा में आज नमी सी जान पड़ती है
शायद कुछ वक़्त ठहर कर वो रोया होगा
हर शाख के पत्ते पर बूँद सी िदखाई देती है
मिट्टी में कहीं गुम ना हो जाए भीगी पलकों से निकले मोती
सोचकर हर दरख्त ने अपनी शाख को झुकाया होगा